Thursday 24 December 2020

सरकार की आइने में किसान संगठनों का आंदोलन

 

अडानी व अंबानी के लिये बनायी गयी तीन कृषि बिल. इस बिल को वापस लेने की मांग को लेकर किसान पिछले 30 दिनों से दिल्ले के बोर्डरों पर डेरा डाले हुये है. भारत सरकार किसानों को समझने को लेकर छह दौड़ की वार्ता कर चुकी है और आगे भी वार्ता करने को तैयार है. किसान दिन व समय निर्धारित करे व प्रस्ताव लेकर पहुंचे. लेकिन, किसान तीन कृषि बिल को मानने को तैयार नहीं है. वहीं, सरकार बिल में संशोधन करने को लेकर भी तैयार है, जिसे किसान अस्वीकार कर दिया है.

फाइल फोटो

         किसान संगठनों की एक छोटी व वास्तविक मांग है. न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) की गारंटी. इस मांग को मानने में सरकार को क्या आपत्ति हो सकती है. दरअसल, इस मांग को सरकार मान लेती है, तो अडानी व आंबानी लाभान्वित नहीं हो सकेंगे. सरकार को चाहिये किसान संगठनों से सार्थक वार्ता करे. लेकिन, इसके उलट किसानों के आंदोलन को खत्म करने के लिये देश के सभी राज्यों में किसान चौपाल का आयोजन की जा रही है, जिससे खुद प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री, मुख्यमंत्री व अन्य बड़े नेता चौपालों में शिरकत कर रहे है. इसके साथ ही भाजपा नेताओं की ओर से किसान आंदोलन को कमजोर करने को लेकर खालिस्तान व नक्सल आंदोलन का नाम देने की कोशिश की जा रही है. इतना ही नहीं, किसानों को बांटने की भी कोशिश की गयी है, ताकि किसान आंदोलन टुकड़े-टुकड़े में बंट कर आंदोलन अपने आप खत्म हो जाये. दरअसरल, सरकार की आइने में किसान आंदोलन वास्तव में आनंदोलन नहीं है, यह नक्सल व उग्रवाद का आंदोलन है, जो किसानों को लाभ पहुंचाने नहीं देना चाहती है.

         कृषि बिल से किसानों की आय दो गुनी से भी अधिक बढ़ जायेगी. इसको लेकर सरकार की ओर से दलील दी जा रही है कि किसानों को खुला बाजार मिलेगा और फसल अपनी कीमत पर बेच सकेंगे. किसान आंदोलन के दौरान ही समस्तीपुर के एक किसान को खेत में लगे फसल का कीमत नहीं मिल रहा था, तो फसल लगे खेत में ट्रैक्टर चलाना शुरू कर दिया. इस घटना का संज्ञान केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद जी लिये और दिल्ली के व्यापारी से संपर्क कर 10 गुणा कीमत पर फसल बेचवा दिया. इसका खुब वाहवाही हुयी. खुले बाजार का लाभ बताया जाने लगा. हकीकत यह है कि खुले बाजार का लाभ किसानों को तभी मिलेगा, जब एमएसपी की गारंटी मिलेगी. इस  वाहवाही की वास्तविकता ठीक चार दिनों के भीतर ही मुजफ्फरपुर में दिखने को मिला, जब मुजफ्फरपुर के किसान भी फसल लगे खेत में ट्रैक्टर चलाया, जिसका सुध लेने वाला कोई नहीं था. 



बिहार में किसान औने-पौने कीमत पर अपने फसल बेचने को मजबूर है. इसलिये अब राज्य में गिने-चुने किसान बच गये है. अमूमन किसान अपने खेतों को मनखप या बटइया के माध्यम से खेती कर रहे है. इसका वजह है कि खेती से लागत भी नहीं वसूल हो पाता है. प्रदेश में धान का एमएसपी 1835 रुपये निर्धारित है. लेकिन, पूरे राज्य में धान 1050 से 1100 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा है. हालांकि, राज्य सरकार ने कृषि सुधार को लेकर कृषि रोड मैप बनायी है. किसानों को लेकर एक से एक लाभान्वित योजनाएं है, ताकि राज्य में कृषि रोजगार का रूप ले सके. लेकिन, कृषि योजनाओं की जानकारी किसानों को नहीं है. कुछ किसान कृषि योजनाओं से लाभान्वित हो रहे है, जिनकी संख्या सीमित है. इसका वजह है कि योजनाओं पर अफसरशाही हावी है.

Sunday 12 July 2020

बिहार की राजनीति में बदलाव की आहट

बिहार की राजनीति नीतीश कुमार, सुशील कुमारी मोदी, राम विलास पासवान, तेजस्वी यादव, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा के इर्द-गिर्द धूमति है. यानी एनडीए बनाम महागठबंधन के बीच. बिहार विधानसभा चुनाव से पहले एक नयी पार्टी के साथ नये चेहरे का पदार्पण भी हुआ है. पार्टी का नाम है प्लरलस व अध्यक्ष का नाम पुष्पम प्रिया चौधरी, जो महत्वपूर्ण विकल्प के रूप में इंट्री की है.  हालांकि, पूर्व सांसद अरुण कुमार व पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा मिलकर पार्टी बनाने की कवायद की है, जो एनडीए के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है. 

    विश्व महिला दिवस यानी आठ मार्च को बिहार से प्रकाशित होने वाली सभी प्रमुख अखबारों के पहले पन्ने पर विज्ञापन आया, जिसमें पुष्पम प्रिया अपने-आप को भावी मुख्यमंत्री के दावेदार घोषित की और स्लांगन दिया हेट पॉलटिक्स…सब का शासन. इस विज्ञापन पर प्रमुख राजनीति पार्टियों की अपने-अपने तरीके से बयान भी आया. कुछ पार्टियों ने स्वागत तो कुछ पार्टियों ने आलोचना की. जदयू के नेता ने कहा कि मुख्यमंत्री की कुर्सी किराना दुकान पर नहीं  बिकता है, जिसे कोई खरीद लें. लेकिन, नयी पार्टी की प्रचार एजेंडा को अब प्रमुख पार्टियां अपनाने को विवश दिख रहे है.  राजद नेता खेतों में घुमने लगे है, तो सत्ताधारी पार्टी ने युवाओं को लुभाने के लिये बड़े नेता को जिम्मेदारी सौंपी है. इससे बिहार की राजनीति में बदलाव की आहट दिखने लगा है.  लेकिन, इस बदलाव का परिणाम चुनाव रिजल्ट के बाद ही पता चलेगा
पक्ष व विपक्ष में बयानबाजी

आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुये पक्ष व विपक्ष के बीच बयानबाजी शुरू है. 15 वर्ष जंगलराज बनाम 15 वर्ष कुशासन राज की नैरेटिव बनाने की कोशिश की गयी है. लेकिन, यह नैरेटिव एनडीए नेताओं को रास नहीं आ रहा है. क्योंकि एनडीए को उपलब्धियां गिनाने के लिये बापू सभागार, बिहार म्यूजियम, फ्लाइओवर व सड़क ही है, जिससे बिहारी जनता को क्या मिला.  जिसे हम सुशासन की सरकार कहते है, उस राज में नहीं बेरोजगारी घटी और नहीं पलायन रुका. उद्योग बंद होते चले गये. युवा, किसान, मजदूर सब के सब परेशान है. इससे एनडीए नेता सिर्फ लोगों को जंगलराज की याद दिला कर अपनी नाकामी पिछाने में लगी है. विकल्प के नाम पर डराने की कवायद की जा रही है. जबकि, राजद नेता तेजस्वी यादव सार्वजनिक तौर पर अपनी गलती मानते हुये माफी मांग कर अपने-आप को स्थापित करने में लगे है. लेकिन, बयान में ही उलझे है. वहीं, एनडीए के घटक लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान भी एक अलग स्टैंड बनाने की कोशिश कर रहे है. लेकिन, उनके स्टैंड से पर्दा नहीं हटा है.

बयानबाजी से दूर जनसंपर्क व #30 वर्षों का लॉकडाउन के साथ प्रचार

मढ़ौरा के खंडहर चीनी मिल

नयी पार्टी प्लुरलस के अध्यक्ष पुष्पम प्रिया प्रमुख पार्टियों की तर्ज पर बयानबाजी नहीं कर रही है. मीडिया से दूर. नहीं कोई साक्षात्कार व नहीं कोई तामझाम. सिर्फ अपनी टीम के साथ जिला-जिला व गांव-गांव घूम रही है. युवाओं, बेरोजगारों, किसानों से मिल कर समस्या जानने की कोशिश के साथ एकजुट कर रही है. वहीं, सूबे के उन सभी बंद पड़े उद्योग के खंडहर तक पहुंची है, जिसे जीवत करना है. किसाने के खेतों में पहुंची है, जहां प्रोसेसिंग प्लांट की जरूरत है. इतना ही नहीं, कुटीर उद्योग संचालित करने वाले लोगों के पास पहुंची है, जहां बेबुनियानी सुविधा व बाजार मुहैया कराने की आवश्यकता है. नयी पार्टी प्लुरलस का नारा है… पिछले 30 वर्षों से बिहार मृतप्राय बन गया है, जिसे अब जागृत कर पुराना गौरव वापस करना है.


Friday 10 July 2020

खतरनाक होते जा रहा है बिहार में कोरोना वायरस

फाइल फोटो

देश में दिन-प्रतिदिन कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़ रही थी, तब बिहार शांत था. कम टेस्टिंग से कम मरीज मिलेंगे. इस फॉर्मूला पर राज्य सरकार चली, जो आज बिहार में कोरोना वायरस खतरनाक होते जा रहा है. इसके बावजूद जांच की संख्या नहीं बढ़ायी जा रही है. राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने पिछले दिनों दावा किये थे कि रोजाना 10 हजार टेस्ट किया जा रहा है. इस दावे के विरूद्ध में सिर्फ रोजाना छह से सात हजार ही जांच किये जा रहे है. इसमें छह से सात सौ के बीच रोजाना संक्रमित मरीज मिल रहे है. पिछले दिनों नीति आयोग की कोरोना से संबंधित रिपोर्ट आयी है, जिसमें कहा गया कि देश के 28 राज्यों में बिहार का खराब स्थिति है.

लॉकडाउन का नहीं किया जा सका उपयोग

22 मार्च से लॉकडाउन लागू किया गया, तब सूबे में इक्का-दुक्का कोरोना संक्रमित मरीज मिल रहे थे. 22 मार्च से 30 अप्रैल तक सख्त लॉकडाउन लगाये गये, जिसमें निजी व पब्लिक ट्रांस्पोर्टेशन पूर्णत: बंद थे. दूसरे राज्यों में लाखों की संख्या में मजदूरों थे, जो एक मई से आने शुरू हुये. सरकार के पास दो माह का समय था, जिसमें बड़े अस्पतालों व जिला अस्पतालों के इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ा कर समुचित इलाज की व्यवसथा की जा सकती थी, जो नहीं की गयी. प्रवासी मजदूरों के लिये पंचायत स्तर पर कोरेंटिन सेंटर जरूर बनाये गये, जो खानापूर्ति थे. सोशल मीडिया पर वायरल दर्जनों वीडियो कोरेंटिन सेंटर की हकीकत उजागर हुयी. वायरल वीडियो में खाना नहीं मिलना, बिछावने की बेहतर व्यवस्था नहीं होना और सेंटर पर गंदगी आदि-आदि. इससे प्रवासी मजदूर कोरेंटिन सेंटर में रहने के बदले भाग गये, जो अपने-अपने घरों में रह कर बेधड़क होकर धूमने लगे. अब कोरोना संक्रमण का सामूदायिक फैलाव होने लगा है. इस फैलाव को रोकने के लिये पटना सहित 12 जिलों में दुबारा लॉकडाउन लगाने की नौबत आ गयी है.

डेडिकेटेड होस्पिटल की नारकीय व्यवसथा

फाइल फोटो
राज्य के बड़े अस्पतालों में एक है एनएमसीएच. इस अस्पताल को कोविड-19 के लिये डेडिकेटेड किया गया, ताकि भर्ती मरीजों की समुचित इलाज किया जा सके. लेकिन, एनएमसीएच की नारकीय व्यवस्था में स्वस्थ्य मरीज भी बीमार जो जाये. दो दिनों पहले एनएमसीएच की वीडियो वायरल हुआ, जो आइसीयू वार्ड का था. इलाजरत दो कोरोना मरीजों की दो दिनों पहले मौत हो गयी, जिसे वार्ड से हटाया नहीं गया और उस शव के बीच ही मरीजों को रखा गया है. वीडियो वायरल करने लड़का कहते है कि डॉक्टर, नर्सिंग स्टांफ या और से सहयोग मांगने पर भी मरीज को नहीं देखता है. अपने से ऑक्सीजन भी देना पड़ रहा है. यह स्थिति डेडिकेटेड अस्पताल की है, तो जिला अस्पतालों की अंदाजा लगा सकते है, जहां कोविड-19 मरीजों का इलाज किया जा रहा है.

सात दिनों में दोगुनी हो रही संक्रमितों की संख्या

30 मार्च तक पटना जिले में छह कोरोना संक्रमितों की संख्या थी और काफी धीरे-धीरे संख्या बढ़ रही थी. पटना जिले के आंकड़ों पर नजर डालेंगे, तो देखेंगे कि 30 अप्रैल तक 44, 31 मई तक 241, 30 जून तक 718 और एक जुलाई से सात जुलाई तक मरीजों की संख्या 1402 पर पहुंच गया. यह स्थिति सिर्फ पटना जिले की नहीं है. बल्कि पूर्वी चम्पारण, सीतामढ़ी, जमुई सहित कई जिलों की है. अब संक्रमण का फैलाव तेजी से हो रहा है, तो एम्स में बेडों की संख्या बढ़ायी गयी और एनएमसीएच को गंभीर मरीजों के लिये सुरक्षित किया गया है.

कोमा में है स्वास्थ्य व्यवस्था

कोरोना संक्रमण की बढ़ते खतरा के बावजूद सरकार, मंत्री व अधिकारी चेते नहीं. संक्रमण के फैलाव होते ही सूबे के स्वास्थ्य व्यवस्था खुद कोमा में चली रही है और स्वास्थ्य मंत्री व्यवस्था संभालने के बदले चुनाव की तैयारी में जुट गये है. स्वास्थ्य मंत्री कितने गंभीर है, यह मुजफ्फरपुर में चिमकी बुखार से बच्चे मर रहे थे, तब भी हम व आप देखे थे. उस समय प्रेस कंफ्रेंस में ही क्रिकेट के स्कोर पूछ रहे थे. अभी पार्टी के वरचुअल रैली में व्यस्त है. हालांकि, बिहार के लोगों में प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, जिससे बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमित मरीज स्वस्थ्य हो रहे है. यह सरकार की कृपा नहीं, यह भगवान की कृपा है.


Monday 6 July 2020

लोगों को नहीं मिल रहा शुद्ध पीने के पानी, खेतों तक पहुंचाने का मिला आश्वासन

बिहार में विधानसभा चुनाव की हलचल शुरू है और सभी पार्टियां भगवान रूपी जनता से संपर्क करना शुरू कर दिये है. चुनावी नगाड़ा बजाते हुये राज्य के मुखिया ने आश्वासन दिये है. अबकी बार सत्ता में आये, तो हर खेत तक पानी पहुंचायेंगे. मुखिया जी पिछले 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज है. लेकिन, लोगों के पास शुद्ध पीने के पानी नहीं पहुंचा सका है. हां, हर घर नल के जल योजना के जरिये पानी पहुंचने की कवायद हुयी है. इस योजना की हकीकत पर बाद में लिखेंगे और आप से राय भी लेंगे. फिलहाल, शुद्ध पीने के पानी और शासन की लचर कार्य प्रणाली पर बात करते है.
राज्य में शुद्ध पीने के पानी की स्थिति क्या है. इसका अंदाजा राजधानी पटना से लगाया जा सकता है, जहां खूद मुखिया जी निवास करते है. इस शहर में होल्डिंग यानी मकानों की संख्या करीब पांच लाख और आबादी करीब 20 लाख हैं. लेकिन, एक भी मकान में शुद्ध सप्लाइ पानी नहीं पहुंच रहा है. लोग निजी मोटर या फिर आरओ के जरिये पीने के पानी की व्यवस्था कर रहे है. इतना ही नहीं, एक सर्वे के अनुसार राजधानी में रोजाना तीन लाख लोग किसी न किसी काम से आते-जाते है. इन लोगों को किसी सड़क पर चलते प्यास लग जाये, तो उन्हें बोतल बंद पानी से ही प्यास बुझाना पड़ता है.
     ऐसा नहीं है कि शुद्ध पीने के पानी पहुंचाने को लेकर योजना नहीं बनी है. योजना तो वर्ष 2008 में ही बनी. भारत सरकार की नुरूम योजना के तहत 420 करोड़ रुपये भी मिले. तब योजना पर काम शुरू नहीं की गयी. वर्ष 2012 में 537 करोड़ की लागत से दुबारा बनायी गयी. इसके तहत आधे पटना को गंगाजल व आधे पटना को ग्राउंड वाटर पहुंचाना था, जिसपर काम भी शुरू की गयी. हालांकि, चयनित एजेंसी संतोषजनक काम नहीं की, तो वर्ष 2014 में टर्मिनेट कर दी गयी. वर्तमान में 537 करोड़ रुपये में पूरी होने वाली योजना की कॉस्ट 2100 करोड़ से अधिक हो गया है. लेकिन, योजना कब पूरी होगी, यह भविष्य की फाइल में दबी है. आखिर इस बढ़े कॉस्ट के देनदार कौन होगा. मुखिया जी के अधिकारी समय से योजना पूरी नहीं किये, तो क्या किया गया. जवाब में कुछ नहीं. हम उनके निष्ठा व ईमानदारी पर गर्व करते है. लेकिन, जब 12 वर्षों में पटना के लोगों को शुद्ध पीने के पानी नहीं मिलता है, तब सवाल तो उठेंगे ही न. सवाल इसलिये भी कि क्या जिम्मेदार को चिह्नित किया गया, क्या योजना पर बढ़े कॉस्ट की वसूली किसी अधिकारी से की गयी और क्या जिम्मेदार को फटकार लगाया गया. इसका जवाब नहीं मिलेगा. फिर, कैसे विश्वासन करे कि इनके अधिकारी समय-सीमा में खेतों तक पानी पहुंचा देंगे और सूबे के किसान खुशहाल व दिन-रात तरकी करने लगेंगे.

आईएएस पूजा सिंघलः भ्रष्ट थी या फिर बनाई गई

भारतीय प्रशासनिक सेवा की 2000 बैच की अधिकारी पूजा सिंघल 21 साल की आयु में यूपीएससी परीक्षा पास की थी. सबसे कम उम्र में परीक्षा पास करने वाली...